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Thursday, May 14, 2015

तब तुम्हारे साथ का नशा था
अब तुम्हारे दीदार का नशा है
तब तुम्हारे प्यार में मशगुल था
अब तुम्हारे प्यार के लिये मशगुल हैं
तब हमने तुम्हे चाँद सा देखा था
अब चाँद में सिर्फ तुम्हे देखते हैं
तब तुम्हारी अदायों पर मरता था
अब तुम्हारी अनदेखी पर मरते हैं
तब प्यार का इजहार करने जीता था
अब प्यार के इजहार के लिये जीते हैं
तब वक़्त का गुजरना ना गंवार था
अब वक़्त का ना गुजरना ना गंवार हैं
तब मुलाकात को तरसता था
अब भी मुलाकात को तरसते हैं
तब तुम्हारे चाहत में दीवाना था
अब तुम्हारे चाहत में दीवाना हैं
तब रात की तन्हाई में याद करता था
अब रात की तन्हाई में याद करते हैं
तब तेरी यादें मेरे जीने का सहारा था
अब तेरी यादें मेरे जीने का सहारा हैं
तब और अब प्यार तो प्यार ही था
अब और तब प्यार तो प्यार ही हैं
तब तुम मेरी थी, मैं तुम्हारा था
अब तुम तुम्हारी, पर मेरा तुम्हारा हैं


 सजन
जिंदगी वीरान है!
पर जीने की आरज़ू है;
दिल मे ज़ख्म गहरे है;
पर दर्द चहरे से छुपा है;
कसूर चाहत का है;
पर असर नफ़रत का है;
दीदार को तरसते है;
पर उन्हें फ़ुरसत कंहा है?
प्यारा सा दोस्ताना है;
पर हम बेगाने-गैर से है!
सासों मे यों ही धड्कन है;
पर दिल उनके पास महफूज़ है|
हमारे दरवाज़े उनके लिए खुले है;
पर उनकी खिड़की पे भी ताले है!
मेरा प्यार तो ज़िन्दा है,
पर वह प्यार से भी महरूम है;
उनके मन मे लम्बी दूरियां है;
पर हमारे दिल मे नज़दीकीयां है|
हमे प्यार से बेहिसाब फक्र है,
पर उन्हें प्यार से शर्मसार डर है;
अजब दास्ताँ दिलवर ज़ालिम है ,
पर सासें फ़िर भी उनके लिए बची हैं,
क्या करें शिकायत, सोच मे हैरानी है!
शब्द तो बहुत, पर जुवां खामोश हैं!
जीने की हर आरज़ू जब उनके कैद है;
मुस्कुराते लब है और आँखे नम हैं!

शब्द तो बहुत, पर जुवां खामोश हैं!!

 सजन
पत्थर की चट्टानों को चीर कर निकलता है दरिया,
"आह" की भी है खामोशिया,सनम पत्थर दिल से
समंदर से मिलने को बेताब दरिया दौढ़ लगाती ;
मेरी जान की दुश्मन, उठकर चली जाती पास से ,
समंदर मे भी चाँद के आकर्षण से ज्वार- भाटा आता,
ऐसी क्या रुश्बाईयां, वह पर्दा नहीं ह्ठाती खिढ़की से |
पर्दा-नशीं थे नहीं वह, हुश्न की चर्चा सरे बाजार होती है ;
सरेआम उनका जलवा बाज़ नहीं कत्ले-आम मचाने से !
कत्तल भी हो जायें, रजो-गम नहीं, दीदार तो होता है ,
अफ़सोस किसी भी दौर का नहीं, रहे यादें दीदार की महफूज से ;
मेरे दिलवर की शोख़ी,खिलती कलियों की नक्श- पहचान है,
उनकी सादगी कलियों को बख्शा है रहम-ऐ-अदब के तकाज़े से ;
सादगी की यह मूरत, फूलों सी मासूमियत का नाकव पहेने है ;
लरज़ता दिल,रंगीनियाँ छुपी है सीने के अन्दर, मेरे दिलवर से !
वह जहेन में फरेब का नश्तर चलाती ,मासूमियत की सादगी से,
मुहब्बत की सर्द चट्टानों को पिघला कर आग का समंदर बनाने से ;
हक़ीक़त में बियोग कि आग, बर्फ बनके, चोट पर लगा रही मरहम !
जिस्म के अन्दर पिघल रही बर्फ, अश्क बन, बहती रहती है हरदम से |
नफरत न होना बुज़दिली की बात नहीं, न है कोई शिकवा वेबफाई से,
मालूम मुझे खोखली दीवाल पर टीका यह बेरुखी का किल्ला वहम से ,
कितने अर्स काबीज रखेगी वह जिद्द खुद के बेकाबू दिल की धढ़कन पे
हमारी भी जिद्द है,मरते दम तक, यों ही धढ़के-उन के दिल मे यादों से

 सजन
जब वह शर्मसार होते हैं; तो चहेरे पे गुलाब होते हैं .
आँखों मे शोख़ी,होटों मे मुस्कान;दिल मे तूफ़ान होते हैं .
जब वह निहारें तिरछी नज़र से;दिल तार-तार होते हैं .
क़सम खुदा की, जन्नत सी नसीब,जब वह मेहरबाँ होते हैं .
काज़ल भरे मद-मस्त कजरारे नयन; बादल से होते हैं .
कभी पलक झपकाना, कभी मुस्कुराना;अन्दर तूफान होते हैं .
मिलन की चाह मे ख़ुशियों से दिल तो बे-लगाम होते हैं .
अरमां हरदम तड़पते सीने मे;लब्ज़ लब्बो पे बेजुवां होते हैं .
इश्क़ छु पाया नहीं जा सकता;अदाओं से खुद बयाँ होते हैं .
इश्क़ मे जुनून इतना;मर-मिट जाने को भी रज़ामन्द होते हैं .
परवाने को लुभाने शमा का ज़लवा रोशन सिंगार होते है
नसीहत काम न आये,बेचैन दिल मे बिरह से ज़ख्म होते है;
नादान दिल मे मिलन की फ़ितरत,मुश्किल से रुके होते है .
जज़्बा पत्थर सा;ज़ेहन मे सिर्फ़ उनसे मिलन के ख्याल होते है

 सजन
अजन्ता के मूर्त-रूप
पाषाण शिला मे सजीव शिल्प अत्यन्त निराला;
अजन्ता के मूर्त-रूप मे प्रकट नारी-सौन्दर्य कला,
शिल्पी के अन्तर भाव छेनीसे निखर निखर चला,
चाहत थी या नहीं राजकीय, प्रेमातुर से रूप मिला!
नायिका की सुंदरता,रूप-अपरूप,अंग-अंग मे खिला,
कहे क्या, शब्द पाषाण, मुखरित हो गई पाषाण शिला;

जब देखता हूँ नजर भर सासें रुक सी जाती,
परी या नदी कोई जैसे चले इतराती-बलखाती;
सर से नख,यौवन भार से इठलाती-लज्जाती,
अल्लड़पन या चंचल-चित्त से लहरों सी लहराती;
यौवनमय,सुन्दर- सलोने देह की छटा बिखराती,
कामदेव की कल्पना सी नायिका, सजीव हो जाती!
शेव्त उदर-जल राशि सम, नाभी ऐसी पड़ी जैसे भँवर,
कटि-तट पर नागिन,-केश-लतायें जैसे घटा छाय अम्बर,
कचनार से अधर पर जैसे फूलों का रस गया हो ठहर,
लाली उसमे जैसे रसमय दाने फैलाए फ़ैली हो अनार ;
सीपों मे बंद मोती से नयन, काज़ल से बचे जो नज़र !
नाजुकता भरा स्पर्श,गोरी गोरी बाँहों से करे प्रेम पुकार;
दाँतों की सफेदी,धवल शेव्त रंग की दे अनुभूति !
घनकेश पिंडली छूता,नागिन कोई सा प्रतिभाति ;
उड़ते आँचल,मधु-कलश वक्ष पर,सुध खो जाती ,
पतली सी कमर लचके जैसे हवा चली बलखाती ;
पैरों के घुंघरू की पैंजनिया लय-मय धुन सूनाती !
रूप गर्विता की सुन्दरता से अप्सरा भी शरमाती |
वस्त्र जो जाय फ़िसल-फ़िसल तंग कंचुकी से,
अंग-अंग की दिखे झलक गुलाब की पंखुडियों जैसे,
नज़र मटकाए,बल खाये,जब देख इतराये पलकों से;
खिली हो कली,सुघन्ध फैलाये, पुष्प बनने की चाह्त से,
इन्द्रधनुष कोई आकर लिपट गया हो गोरी के बदन से;
नख से शिखर तक,जब अंग देखता हूँ तेरा हर नजर से !
नथुनों मे भर गहरे सासों का निशब्द तूफान;
टूट जाता है सब्र,मधु पीने मधुकर है परेशान,
कोमल कपोल,पयोधर वक्ष,कटि सुन्दर सुजान;
उद्भाषित,उन्मिलित,उन्मुक्त मिलन आह्वान!
रती-नायिका,शृंगारिका, कहाँ वस्त्र का ध्यान |
अजन्ता के मूर्त-रूप मे नारी-सौन्दर्य महान !

 सजन
हमारे दरवाज़े उनके लिए खुले है;
पर उनकी खिड़की पे भी ताले है!
कभी हंसाती, कभी रुलाती, कितने गुल खिलती हैं
अज़ब दास्ताँ है भाग्य की ,फिर भी इसी की चाहत हैं
तदबीर करें कियों कोई ? भाग्य पर जब चलता है
तकदीर की चले जो तदबीर क्या काम करता है
कोई जनम से भोगे सुख,कर्म की जरुरत कंहा होती है
कोई करम के बाद सोये भूखा-नंगा, भाग्य कंहा होता है
यह पहेली समझ ना आई, मन मेरा सवाल करता है .
कर्म प्रधान या भाग्य महान, कैसे इसका निदान होता है
सन्देशा मिला "गीता"से , फल की आशा ब्यर्थ है ;
कर्म को दिल से लगाकर, विधि का निर्णय पाता है
मिले ग़र तकदीर -तदवीर से, नतीजा आसन होता है
अगर मिल गई तदवीर-तकदीर से काम आसान होता है


 सजन
पुत्र जनम शुभ, कन्या जनम कष्टकारी,
करे भेद-भाव, सब बिधि, अबिवेक-अबिचारी
न जानत, जननी रूप कन्या की छबी न्यारी
ध्यान दीजे, संतान सकल, सम प्रेम अधिकारी
शीतल वचन, कोमल मन, स्नेह सुख परिभाषी
मंगल मूरत, नित सेवत, सत चित, प्रकृती से दासी
निसदिन बोलत, प्रेम सहित डोलत,धरत सुखराशी
कबंहूँ नहीं मांगत, न कबंहूँ कठोर संकल्प फरमासी
करुनामय,रसमय, लछमी रूपा आनंद सुधा बरसाती
कोयल सी कुंजन करत, तितली सी मंडराती
सृष्टि की अधिकारी, सेवक मान, जग में जी पाती
कल्पतरु सी दाता,अपने दुःख अपने में समाती
कुंठित,भयभीत, लज्जित सा जीवन परे
मात-पिता,अग्रज-अनुज सब अनुशासित करे
जान कष्ट, शांत भाव-सदा ही धीरज धरे
प्रतिपालक जननी तू जब संतान रूप धरे
विचित्र रचना, भ्रमित माया जगने रच राखी
पराया धन ठहराये, जो धन दुःख में सहभागी
कन्या-दान अति महान कहे सब अनुरागी
फिर भी मांगे धन-दौलत, कन्या बिचारी अभागी

 सजन
जैसे सूरज पि‍घलकर बन गया हो लाल अंगार
दिल जैसे लू-लोहान शाम का डूबता रबि
मन हुवा सुनहरा-सा बहे पि‍घला-पि‍घला-सा
कुछ धुँधला धुँधला कुछ उजला-उजला
चमकते भाव छंदों में सोच के अंधेरो में
महकाकर सांसों को चुभती है केवल दिल में
वही डंक मारकर कविता हो जाती है।
रफ़्तार में शामि‍ल गर्म सांसों का धुआ
जो उठता चारों पर दि‍खता कहां, जो देख पाते
और समझ पाते, उन्हें ही आते ख़याल नये
इन ख़याल को समझे और कविता हो जाती है


 सजन
खोखली ही चाहे उल्फतें, कुछ मगजमारी कीजिये;
इक नज़्म "मोहब्बत" की गम मिटाने को कीजिये;
दर्दे-ए-बयाँ हक़ीकत खुल कर मुँह जबानी कीजिये;
सोचिये कुछ,भरिये आहेँ,प्यारी-प्यारी बात कीजिये;
मसला ज़ज़्बात का हल-कोशीश-ए-अंज़ाम कीजिये;
पत्थरों के शहर में महफूज़ रखना,इंतज़ाम कीजिये;
कांच से ज़ज़्बात,जज़्बा हो हिफ़ाज़त पत्थरों मे कीजिये
खेले ज़ज़्बात से,मुस्करा के,खौफ़ की बजह तो कीजिये
वेबजह सही कुछ मेहरबानी ग़ुरबत को मिटाने कीजिये


 सजन
नज़रों से बचे, नज़रें मिलाकर,नज़रें चुराकर करे इशारा,
नज़रों से गिरे,नज़रें उठाये,नज़र से नज़र का खेल सारा

 सजन
सभी समस्याओं के सुन्दरता पूर्वक समाधान "हम" में निहित है।
सभी समस्याओं के सुन्दरता पूर्वक "अ"समाधान "अ ""हम" में निहित है।

 सजन
रोक नहीं सकती बधाये उन का रास्ता
जब लगन और ,है,सिर्फ मंजिल से वास्ता

 सजन
भोर की लाली छाई,स्वर्णिम आभा का प्रकाश,
ली तुमने अब अंगड़ाई,अधखुली नींद का आभास,
यह उलझे बालों की लटे, मनमें महके सुवास
मिलन के मधुरिम पल, चाहत में चातक सी आश
कंपते अधरों में प्रेम-रस की अनबुझी प्यास
तृप्ती से अतृप्त तन में देह-गंध का मदहोश वास
झरते पसीनो की बूंदों में सिंगार का उल्लास
सिहरीत लज्जावती बेल का सुखद नागपाश
इन्द्र-धनुष सा सतरंगी मिलन का सहवास
झिम-झिम सा बरसता "प्यार" जैसे मधुमास
धीमि-धीमि सांसो में तेज आंधी का बिकास
तूफान उठा हो जैसे रप्तारों में बिखरे श्वांस
पाने की ज्वाला में सर्वस्व देने का अभिलाष
समर्पण और मिलन का है मौन यह परिभाष


 सजन
कचनार से अधर पर जैसे फूलों का रस गया हो ठहर,
लाली उसमे जैसे रसमय दाने फैलाए फ़ैली हो अनार ;
सीपों मे बंद मोती से नयन, काज़ल से बचे जो नज़र !
नाजुकता भरा स्पर्श,गोरी गोरी बाँहों से करे प्रेम पुकार


 सजन
बेजान सूनी आँखें, सुख गये आँसू,नज़र धुँधलाते
दाँत कसकर भींचे, "वे" भूख को अंतढ़ीयों में दबाते
"वे" देते अभिशाप उस ख़ुदा को जिस कारन "वे" रोते
भूख से मरते,और आसमान तले जाड़ों में खुले सोते
उम्मीदें बाँध, दुआएँ कीं, पुकारा व्यर्थ ही सोते-जागते
"वो" करे उपहास,बढ़ाया दर्द-पिछले पाप का फल बताते
ग़रीब-दुखियों के दुख को सुनमें उबासियाँ "वो " लेते
हमारे"वो" "पांच-सितारा" में शान से बर्गर-पिज्जा खाते
भूख किया है ? हमारे "वो" अगर तरीके से जान-जाते
दुष्टता-बुराई ही है पनपी "उनमे", नैतिकता को मिटाते
दिन-रात चुन रहे सर्वनाश, अपने "वो" अभिशाप जुटाते
पाप-पुण्य की माने तो "वो" गन्दगी-खोर कीड़े से मुटाते
बजा रहे हैं द्वन्द का बिगुल अपने "वो" असमानता फैलाते
भूख किया है, हमारे "वो" अगर तरीके से जान-जाते ?


 सजन
लगे अन्दर कुछ खिसके धीरे से
दिमाग जब सुलगता गुस्से से
क्रोध का नतीजा अफ़सोस से
रोकिये इसे अपनी सूझ-बुझ से
जब होता कोई अवसाद मन में
परेशानिया रोजमरा जिन्दगी में
सूझे न आसन राह सुलझाने में
जवाब इसका मिले शांती-धैर्य में
अन्दर कुछ उछले जोर से
दिल जब महकता खुशी से
संतुस्टी का नतीजा गुमान से
रोकिये इसे सोच-समझ से
जब होता फैसला जल्दबाजी में
बिन अन्जाम भले और बुरे में
पछताये जब डोर नहीं हाथों में
जवाब इसका मिले पहले सोच में
अन्दर कुछ होता चेतना से
मन जब कहता आत्मग्लानी से
किये का नतीजा जाने-अनजाने से
रोकिये कदम फिर इसे दोहराने से


 सजन
दर्दे-ऐ-दिल बताना है
खुद की बेरुखी पर
वह अगर एक बूंद आंसू बहाते
कसम खुदा की
हम गम का सागर पी जाते

खुद की वेवफाई पर
वह अगर एक "आह" जताते
कसम खुदा की
हम शर-शैया पर भी लेट जाते
खुद की अनदेखी पर
वह अगर एक नज़र नजराते
कसम खुदा की
हम मरते दम तक राह तकाते
खुद के जुल्मी सितम पर
वह अगर एक अफ़सोस जताते
कसम खुदा की
हम आग के दरिया में कूद जाते
मेरा जूनून नहीं,मेरा सरुर है
ना माकूल इम्तिहान,अब्बल आना है
पाने का सवाल नहीं, अपना बनाना है
शिकायत उनसे नहीं,दर्दे-ऐ-दिल बताना है
 सजन
नारी की छबी न्यारी
शीतल वचन, कोमल मन, स्नेह सुख परिभाषी
मंगल मूरत, नित सेवत, सत चित, प्रकृती से दासी
निसदिन सेवत, प्रेम सहित डोलत,करत सुखराशी
कबंहूँ नहीं मांगत, न कबंहूँ कठोर संकल्प फरमासी

करुनामय,रसमय, लछमी रूपा आनंद सुधा बरसाती
कोयल सी कुंजन करत, तितली सी मंडराती
सृष्टि की अधिकारी, सेवक मान, जग में जी पाती
कल्पतरु सी दाता,अपने दुःख अपने में समाती
कुंठित,भयभीत, लज्जित सा जीवन परे
मात-पिता,अग्रज-अनुज सब अनुशासित करे
जान कष्ट, शांत भाव-सदा ही धीरज धरे
विचित्र रचना, भ्रमित माया जगने रच राखी
पराया धन ठहराये, जो धन दुःख में सहभागी
करे भेद-भाव, सब बिधि, अबिवेक-अबिचारी
न जानत, जननी रूप नारी की छबी न्यारी

 सजन
यूँ भी क्या कम ग़म थे
दामन में हमारे
ज़िन्दगी गुज़ार लेंगे
तुम्हारे यादों के सहारे....
इस कशीश में जो जलन है
मेरी चाहत का प्रतिफलन है
अब चाहे जिन्दगी दे या मौत
ज़िन्दगी गुज़ार लेंगे
तुम्हारे यादों के सहारे....



 सजन
यादो के झुरमुट से कोई पत्ता,
उड़ते हुवे आया;
उस पर कुछ धुल जमी थी,
मन है कि मचल पड़ा!
पुरानी स्मृतिया,
आतुर आँख देखे उसे,
न जाने कैसी कैसी याद,
घुमे नज़र मे दिन पुराने,
एक दुसरे का साथ निभाना!
जीने-मरने की कसम,
घर बसाने का सपना,
जानना चाहता कि-
बिछड़ने के बाद,
क्या था जो जोड़े रखा हमे|
मन आज भी तड़पता,
अकेले होकर कभी कभी,
सब के बीच तलाश करता!
पुराने दिन कि -
अटखेलियाँ करती परेशान,
रिमझिम बारिस मे भीगना!
कानो मे गुनगुनाये पैजनीया,
खिलखिलाना,हँसना-हंसाना!
और कितनी कितनी बातें,
लिपट पड़ती बांहों में,
बच नहीं सकता उस से,
अनगिनत प्रश्न-सताये,
यादें सिकुड़ कर,
सिमट कर दिल मे,
साथ रहती परछाईं सी!
कब किस बहाने उसका,
धुँध सा फैलाव,फैलता मन मे!
मैं हैरान निगाहों से देखता;
यादो के झुरमुट से कोई पत्ता!!


 सजन
पड़े-पड़े ,गुमसुम से चुप-चाप
बीते हुवे कल में खो कर,
सोच में ढूंढता हूँ अपने अछे-बुरे दिन
ऊब-से, किसी-किसी मौके पे
केवल कुरेद लिया करता हूँ अपने-आप
दूर-दूर तक एक धुंधलापन छा जाता,
सहसा सोच की आंधी झकझोर जाती
अपने मन के आईने के सामने,
आदमखोर सी खुद की आकृतियां
और हिंसक पशुता सी स्वार्थ की लालसा
अधिक गहरा जाता बेशर्मी का तमाशा
बजता बिगुल अंतर्मन में, फिर खामोशी-सी,
सोच,कांप कर सिहर-सिहर जाता ।
अच्छाई-बुराई और विवेक की लढ़ाई
क्या जाने क्या सोच अचानक रुक जाता
चढा कोहिनी,हाथ पैर घुमाकर अपनी बुद्धी से
अधीर हो जाता हूँ सब कुछ सही ठहराने
धब्बे पडते हुए चरित्र में, झूठ की चादर
अपनी थाह नाप कर,समझने=समझाने
लौट जाता हूँ वापस, वही राह में,
यह बदनुमा दाग, पेढ़ के तने जैसा बस रह जाता -
खुला विवेक और मन सूना-सूना सा
पानी=पानी होकर, निश्चुप, विवश
वापस चतुर दिमाग से हार जाता
अब रात आ गई, ठंडी हवा हो गई -
मौन था, मन भटक रहा था!
यादों के विशाल बरगद की छाया थी,मैं था,
आगे से अनजान,समेटे हुए मेरे अतीत ,
मैं इस अंतरद्वन्द को गहराई में जाकर
खोज निकाल करूँगा उसे जरुर बाहर


 सजन
प्यारा बंधन
हम दोनों यारों मे
.............................गरम चाय
स्पर्श भावों के
रोमांच शरीर पे
.............................वाष्पित चाय

लिखे लेख से
एक ही विचार मे
............................अनुप्त चाय
मन तृप्ती से
प्रशन्न चहरे से
............................ठंडाई चाय
ठंडी चुप्पी पे
तूफान ह्रदय के
..............................छलकी चाय
हम साथ मे
लगन चिन्तन से
.............................फिरसे चाय
ठंडी रातो मे
हम दोनों साथ मे
.............................गरम चाय

 सजन