आज एक बार,
रोटी का निवाला देखकर,
अन्दर आत्मा चीख उठी !
और निवाले को देखकर बोली-
इतनी सी बात का था बजूद ?
सिर्फ दो वक़्त की रोटी के सवाल पर,
अपना जिगर काटकर...
अलग कर दिया, जिगर |!|
तक़दीर के भरोषे छोढ़ कर…
भेज दिया रोटी खोजने,
और फिर मशगुल हो गये खाने पर !
रोटी का बढ़-बढ़ाना उचित,
आज फिर गुस्से का सामना-
सवाल करती हुयी रोटी का,
जैसे मेरा बेटा करता
तब कोई,असमानता नहीं रह जाती !!
उस रोटी के निवाले मे और.....
मेरी बेटे के सवाल मे,
क्या रोटी इतनी छोटी पढ़ गई थी ?
दो वक़्त के भी थे लाले,
मिल बांटकर खा लेते एक-एक निवाले,
जिगर के टूकढ़े को, रोटी के टूकढ़े के लिये,
घर से बहार निकाले,
क्या थे सचमुच रोटी के लाले ?
पास अगर होते मिल बांटकर,
खा लेते सुख-दुःख के निवाले |!!|
रोटी के भी जुटा लेते,
न होती तक़दीर रोटी के हवाले |
:-सजन कुमार मुरारका
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