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Monday, October 1, 2012

जुदा नहीं तुम से....!!!



इस दिल को जलाया हैं चाहत में,
तब होती है रोशन, तेरी महफ़िलें सनम !
जब चिराग़े- दिल जलता  महफ़िल मैं,
जान बाकी है मेरे दिल में, तभी जानम,
धुवाँ निकलता,राख इकट्ठा हैं सीने में |
आग को भी दुश्मनी,धधकती रहे हरदम,
रौशनी भी दिल की न बुझे,इन्तजार में ?
कोई भी आंसू न बुझा पाये खुदा कसम |
छुप छुप के ज़माने से रोते जलन में
कियों करूँ यत्न?जहां टूटता हैं दिल का वहम,
हम दिल में तो रोते, हँसते हैं पर बाहार में |
आईने जैसी नजाकत है हमारी भी सनम,
ठेस हलकी सी लगे तो देर नहीं चटकने में !
तूम ग़ैर की हो जाये तो शकुन पाये हम,
तन्हा होने का दर्द, वो जाने दिल हो जिन में,
जो अपनों को खोते,भरते नहीं उनके जख्म |
गर होती सच्ची मुहब्बत झलकती चेहरों में,
नहीं मोल बिकती कहीं पर शराफ़त, बेशरम !
बुजर्गों कि सच्ची अदावत- छुपे राज़ नज़ाकत में,
जलालत निगाहों से छ्लके,मासूम आँखे बेरहम |
ज़रा यह बता दे- किसकी बदौलत तुम है चर्चा में ?
मुझमें तू खुद को देख, तेरी परछाई हूँ मैं हरदम }

:-सजन कुमार मुरारका

नहीं हो दूर हम से...




दूर रहते तुमसे, पर  दूर कंहा रह पाते |
कहने के लिये दूर है,पर दूर नहीं दिल से,
आवाज देकर देखो,दिखेगें हर धढ़कन से |
कोई बात नहीं चलो ,तुम दूर हो गये हम से,
समझ नहीं आता,हम दूर हों तुम से कैसे ?
अफसाने,साथ होने का ख्वाब, दूर नहीं होते,
सोचते हैं, ख्वाब में भी दूर रहेंगे तुम से !
पर नींद नहीं आती बिन तुम्हारे  ख्वाब के ,
चंद दिनों की नजदीकियां,भुलाये हम कैसे ?
दूर रहते तुमसे,दूर कंहा रह पाते दिल से !
उम्मीदि में, अब दूरियां मिटे ना दिल से |
महफ़िल सजती होगी, पर हम ना होंगे ,
हम ने सोचा था जिन्दगी भर दूर ना होंगे ,
जुल्म की इन्तिहा है, दूर किया बेवजह से !
वजह थी आपकी, सजा हमें दी जा रही कैसे ?
हृदय पटल पर अंकित तस्वीर दूर करे कैसे ?
चाहत को पलकों में बसा घूम रहे है कब से,
दूरियां मिटे ना मिटे, तुम नहीं हो दूर हम से !
जाने क्या बात,तुम भी हो,पर रहते दूर-दूर से |
:-सजन कुमार मुरारका

मैं प्रेमी नहीं ,पर प्रेम जरुर करता हूं


मैं  प्रेमी नहीं ,पर प्रेम जरुर करता हूं
कैसे, कियों, किसलिये,सोचकर में  निरूत्तर हूं |
माता-पिता  से प्रेम है या नहीं,याद कर लेता हूँ !
मेरे भाई-बहन,रिश्तेदार है जो-भी -
मैं सब से, जैसे-तैसे ,निभाने को हंस-बोल लेता हूँ |
निरन्तर  न सही, समझाता हूँ उन्हें प्रेम करता हूँ !
पत्नी की बात अलग, न्यारी भी,
उनके आँखों से पानी बरसता है जभी ,
खुश करने को ,योगी  जैसे मौन सुनता हूँ -!!
उन्हें बिश्वास दिला-देता, अगाद प्रेम करता हूँ |
जब  प्रकृति के नियम परे,  ललचाये मन भी ,
आप-बीती भूलकर भी ,प्रेम करने लगता हूं |
कोयल की तान, सुन्दर पक्षी मोर की ,
कल्पना  शुरु होती है, हर रूप विचार की-,
कल्पना  के है जो आधार, उन आधार से,
निशदिन बिलखता हूं, ,पर फिर भी प्रेम करता हूँ !!
मैं तो प्रेमी  नहीं, पर मजबूरन प्रेम जरुर करता हूं |
पुत्र-कन्या  की  चर्चा  भी  नहीं  उभरी  जो अभी ,
मैं क्या लिखूं ,पास न होने का भी मलाल करता हूँ !
चुप भी नहीं रह पाता, बे-इन्तिहा प्रेम करता हूँ |
यार-दोस्तों की बात आइ नहीं, शेष है कुछ और भी,
आदतें, मजबूरी, ये सब तरह- तरह के शौख भी ,
चाहकर छुटते नहीं, मैं प्रेम  से डोर पकड़ा  हुवा हूँ ,
लिखें जब जल-जला या गजल या कविता करता हूँ !
मैं  प्रेमी नहीं ,पर प्रेम जरुर करता हूं |

:-सजन कुमार मुरारका

बदलाव चाहिये




 


सुबह की चाय
हाथ मे अखवार
वही खबर
लूटमार
बलात्कार
भ्रस्टाचार
पढ़ते पढ़ते
चाय ठंडाई
छाई मलाई
अंतरमन मे
अफसोष करते
सरकार को गरियाते
व्यवस्ता की दुहाई देते
अपनी सीमा बताते
और निश्चुप हो जाते
आवाज लगाई
चाय ठंडी हो गई
विवेक जैसे
धुल जम गई
मरकर ठंडा हो गया
अन्दर से
हम सिर्फ सहते
प्रतिवादी नहीं बनते
फिर आई चाय गरम
कब आयेगी शरम
व्यवस्ता हम से
व्यवस्ता से नहीं हम
कब टूटेगा भ्रम
आज का अखवार
कल होगा पुराना
खबर नहीं बदलेगी
बदलेगा पात्र और स्थान,
जब तक नहीं बदलेगा जमाना

:-सजन कुमार मुरारका

तम्मना


नजदीक रहे, नजदीक न रह पाये,
नजर तो उठी, पर नजर न मिलाये,
वहम था दिल का, कभी तो नजदीक होंगें,
अल्फाजे बयां, दिल की हर बात कहेंगें |
जुल्म-सितम जुवां का वह तो चुप रहे
उम्मीदे आसमां की शायद वह कुछ कहे,
बात चले,नजर मिले, नजदीक जा पाये,
नजाकत उनकी,क़त्ल हुवे, उफ़ तक न कर पाये |
जालिम दिलवर, हर वक़्त नजदीक से गुजर जाते,
तरसते सुखी धरा से हर एक बूंद को ललचाते,
चिल-चिलाती धुप मे,  सूखे होंटों से प्यास बुझाते,
गफलत मे थे-पसीजे दिल,झूठी थी मन्नते,
दिल नहीं जिन के पास, वह दिल का हल क्या जाने,
मोहब्बत है, इब्बादत है, मौत से डरते नहीं परवाने,
पास कभी गए नहीं, नजदीक का लुफ्त है बेमाने,
वह खुद से नजदीक नहीं, अगर देखते वह आईने,
अश्क दिखता मेरी मायूसी का उनके चहरे पे,
दिल की बात, कहती सब बेजूवान आँखों से,
उल्फत भरा नजराना गम के प्यालो मे,
अफ़सोस कंहा, वह हमारे नजदीक न हो पाये |
रात कट जाती, ख्वावों मे, जोशे तम्मना जगाये !

:-सजन कुमार मुरारका

(हाइकु प्रयास)..भाग-३



जाती के नाम
आरक्षण का खेल
सत्ता चाहिए
************
धरम में भेद
राजनेताओं का कम
बाँट के रखें
************
निश्चुप लोग
दोषारोप करते
कैसे सुधरे
***********
सहना अच्छा
गलत को न सहे
अनन्या बढ़ें
***********
गति है प्राण
रुकना है मरण
चलते रहो
***********
सुख या दुःख
चक्रावत घूमते
सहे सो रहे
************
जग दूषित
प्रकृति का विनाश
ध्वंस आह्वान
************
हमारा टैक्स
फायदा न देशका
मजा नेता का
*************
इन्साफ रोता
पैसे की ताकत
अँधा कानून
**************
हाय किशन
अनाज पैदा कर
भूखा रहता
***************
देश का हल
नित्य नये घोटाले
हद हो गई
****************
सहते हम
अनन्याकरीयों को
अनन्या करें
***************
सिलिंडर छ
काफी भूखे देश मे
बनाने है क्या ?
***************


:- सजन कुमार मुरारका

लोग मुझे कहते पागल



मेरे अपने लोग मुझे कहते पागल,
सोचता था व्यवस्था को दूंगा बदल !
इतनी हिम्मत भी नहीं करूँ दंगल,
बदलाव के लिये धन भी नहीं प्रबल,
पर मन में खिलता सोच का कमल |
विद्रोह की ज्वाला करता उज्जवल,
कोई ना कोई होगा, देगा इसे अमल !
सुनने वाले सब कहते मुझे पागल !!
चिंगारि सुलग रही है,चाहिये जंगल,
प्रतिवादी आग फैले,जैसे कोई दावानल,
खोजता हूँ मिले कोई "महादेव",पिये हलाहल,
पुकार सुन कोई आयेगा,होगी न पुकार निष्फल,
फिर भी कोई आये, न आये, चल अकेला चल |
मिलेगा चलने का फल, यात्रा नहीं होगी विफल !!!
चाहे लोग यों ही कहते रहें मुझे पागल |

:-सजन कुमार मुरारका

चिट्ठी आई बेटे की



तुम्हारे जाने के बाद
हर दिन खिड़की से बाहर तकाते
उम्मीदों की आश लगाये
मायूस होकर अब गुमशुम से
खिड़की से पर्दा  नहीं हटाते

बहुत दिनों बाद खिड़की से पर्दा हटाया
तुमने लिफ़ाफ़े में जो चिट्ठी छोड़ी थी,
वो खिड़की के बाहर पड़ी थी,,
बारिशों में गुलज़ार हो चुकी थी

रेखाओं से टहनिया फूट चुकी थीं, और
आधे धुले शब्दों से फूल निकल आये थें.
उनपर वही सारी तितलियाँ बैठी थी,
जो तुमने मेरे कमरे में छोड़ी थीं

उन बारिश से भीगे फूलों से
चुलबुली तितलियाँ लगी मंडराने
मेरे आसपास, यादों के शूल चुभाने,
भीगी हुई चिट्ठी से निकली थी


मैंने वो चिट्टी वापस रख ली है
बिस्तर के तले;
और फिर पर्दा ड़ाल देता हूँ
आज तकिया मेरा फिर से गीला सा है

:-सजन कुमार मुरारका

मेरा देश-प्रेम



                                                                                   
मेरा देश
छब्बीस जनवरी,
पन्द्रह अगस्त,
खादी का कुर्ता और टोपी,
भारत का झंडा फहराके गाते,
बन्दे मातरम और राष्ट्र-गान |
बस देश बन गया महान |!!

देश मेरा,
देश की सम्पती मेरी,
पाना है मुझे सारे अधिकार ,
संविधान से जन्म-सिद्ध,
लोकतंत्र की पहचान |
काहे होते हैं बेकार मे परेशान,
भारत है गणतंत्र मे महान

देश के लिये
सीमा पर जो देतें बलिदान,
या शहीदों के परिवार की कुर्बानी,
और अन्दर की व्यवस्ता ,
रक्ष्या करते धन-इज्जत-इमान |
हम कितना देते मान-सन्मान ?
फिर भी मेरा देश महान !!

देश-प्रेम
मुझ मे कूट-कूटकर भरा,
हर सुबिधा पाने को तत्पर,
"माँ" से जैसे संतान पाता |
और माँ की देख-भाल ?
दूसरा-वाला बेटा करेगा ध्यान !
देश मेरा इसलिये तो बना महान !!

देश-प्रेम का सवाल ?
कभी गहराई से सोच न पाये ,
वैसे पाने के लिये हर मुझ जैसे,
शख्स मे अगाद होता, और-
जब कुछ देने-करने की जरुरत हो,
काफी बहाने,उलझने और -
अपने-आप निकल आते भाषण !
हमारा देश है, इसे बनाना है महान !!

देश के प्रति मेरा प्रेम
उस प्रेमी के तरह है जो नहीं जानता
प्रेम क्या है और कैसे किया जाता ?
वह प्रेम जताता, प्रेमी कहलाने, !
"नहीं तो दोस्त-यारों की महफ़िल मे,
इज्जत को बट्टा लग जायेगा, इसलिये,
चाहे-अनचाहे निभाता यह दर्शन-
मेरा है देश और यह देश है महान !!!

:-सजन कुमार मुरारका

बेटी नहीं है पराया धन




तुम्हारे जाने के बाद,
आ रहें मुझे वह पल याद,
विदाई के समय रोना फुट-फुटकर !
होस्टल मे भेजे जानेवाले बच्चे के बराबर,
दुबिधा मे डूबा हुवा तुम्हारा मन,
शायद कुछ प्रश्न के उत्तर खोजता चिंतन ,
शुरुआत का डर नये रिश्तों का-
"पुराने" को स्मृतियों के हवाले करने का !
बीता हुवा बचपन, बाबुल का आंगन,
अपने सारे पलों का कढ़वा या मीठापन,
मैं समझकर भी बना हुवा तटस्थ- नासमझ
उंच्च-नीच की तहजीब और परम्परा का बोझ,
लग गया हौशला दिखाने , दिलासा दिलाने मे,
हमारी छोढ़,सोच अपने सुनहरे कल के बारे मे ,
याद भी नहीं आयेगी,बहुत प्यार मिलेगा,
सब लोग, भाई तुम्हारा, मेरा ख्याल रखेगा |
भोलेपन से या मजबूरी से क्या स्वीकार,
सिसकते-सिसकते गई, छोढ़ बाबुल का संसार |
वक़्त के साथ,बीतें लम्हों के साये मे,
जिन्दगी के धुप-छावं तले, सुख-दुःख मे,
फिर भी हर पल तुम, मेरे आस-पास रहती ,
मेरी पीढ़ा, खुशी और गम को खुद मे झेलती,
जब की मैंने "तुम्हे" तुम्हारे भाग्य के हवाले किया,
पर तुम सहभागी बन हमेशा साथ दिया,
आज भी पिया-घर रहते, बाबुल मे जीती ,
आये-गये मुझे "माँ" बनकर अनुशाषित करती ,
मेरी आवाज के उतार-चढ़ाव से समझ जाती,
मेरी दिल की भी बात तुमसे छिप नहीं पाती |
बिकट, कठिन और बिषम हर अवस्था पहचान,
बार-बार फ़ोन करती हो जाती हो कितना परेशान !!
तब मेरे अन्दर सोच का तांडव मचाता घमाशान,
पास के लोग मेरे, बेटे-बहु, या किस-किस का ब्याखन-
पराया धन सोचकर जीसे रुलाकर विदा किया था ,
वही धन अब, सब से पास, और ज्यादा काम आता |!!!|

:-सजन कुमार मुरारका

रोटी का सवाल



आज एक बार,
रोटी का निवाला देखकर,
अन्दर आत्मा चीख उठी !
और निवाले को देखकर बोली-
इतनी सी बात का था बजूद ?
सिर्फ दो वक़्त की रोटी के सवाल पर,
अपना जिगर काटकर...
अलग कर दिया, जिगर |!|
तक़दीर के भरोषे छोढ़ कर…
भेज दिया रोटी खोजने,
और फिर मशगुल हो गये खाने पर !
रोटी का बढ़-बढ़ाना उचित,
आज फिर गुस्से का सामना-
सवाल करती हुयी रोटी का,
जैसे मेरा बेटा करता
तब कोई,असमानता नहीं रह जाती !!
उस रोटी के निवाले मे और.....
मेरी बेटे के सवाल मे,
क्या रोटी इतनी छोटी पढ़ गई थी ?
दो वक़्त के भी थे लाले,
मिल बांटकर खा लेते एक-एक निवाले,
जिगर के टूकढ़े को, रोटी के टूकढ़े के लिये,
घर से बहार निकाले,
क्या थे सचमुच रोटी के लाले ?
पास अगर होते मिल बांटकर,
खा लेते सुख-दुःख के निवाले |!!|
रोटी के भी जुटा लेते,
न होती तक़दीर रोटी के हवाले |


:-सजन कुमार मुरारका

मर गया मेरा मन |







 
हाल-फ़िलहाल,
न जाने कियों,    
अंतर्मन के बिचारों को,
मन की जमी मे बोया था,
सोचा था..........,
सुन्दर सा कोई गीत,
गजल, शयरी या कविता,
हंसी का कोई तराना,
अंकुरित होगा फूलों सा,
ख्वाइस थी.........,
महकेगा चित्तवन,
फैलेगी सुगंध,
चहकेंगे हर छंद,
शीतल शोभित बर्णन,
पर कठोर कुंठित मन से,
उपजा हैं काँटों का उपवन |
ह्रदय को करके लहू-लुहान,
तार-तार हो गये,
सहनशीलता के आधार,
मुझे अब अच्छे लगते विरह के गीत,
दर्द भरें शेर और शायरी,
गजल जिस मे हो बिढ़म्बना,
किसी के छलकते नयन |
समभाव से मन मे आता चैन,
हँसते-गुनगुनाते लोग करते बेचैन,
सब कहते........,
मर गया मेरा मन |
मरे हुवे मन की चित्ता की राख़,
सारे शरीर पर मलकर,
मैं "अघोरी" सा......
फिरता यादों के शमशान पर |
हाल-फ़िलहाल,
न जाने कियों ,?
अंतर्मन के बिचारों को,
बंजर खेत मे सीच रहा हूँ,
बात-बेबात !

:-सजन कुमार मुरारका

बूढ़ा पेढ़,



मैं अपने आप को बूढ़े पेढ़ के साथ मिलाकर
सोचता हूँ, कितनी त्रासदी हैं उन बुजुर्गों की
जिन्हें अब बेकार का जंजाल समझा जाता है |
बुजुर्ग को बूढ़े पेढ़ के प्रतीक मे सोचकर देखें.......

XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
मैं बूढ़ा पेढ़,
मुझ मे झुरियां पढ़ चुकी,
कितने अर्सों से यहाँ खड़ा !
गर्मी-सर्दी,सावन -भादो-
हर मौसम को निहारता,
सारे के सारे उतार चड़ाव,
चिलमिलाती धुप सहकर,
दूसरों के लिये छाया बिछाता,
हर राही को ठण्डक दिलाता |
बदलते समय के साथ,
चहरे पर जो मेरे रुबाब था,
अब बदल गया, बूढ़ा हो गया |
कुछ पीली-मुरझाई सी पत्ती,
अध्-सुखी टहनी और झुरियां,
वक़्त के साथ, साथ छोढ़ देती !
हवा के हलके झोंकों से भी,
मेरा कठोर सा तन अब झुर-झुरा,
गर्मी-सर्दी से डर कर रहता सहमा सा,
ठण्ड मुझे अब सताने लगी,
गर्मी मुझे  अब सुखाने लगी,
बरसात अब कर देती पानी-पानी |
हवा के झोके तन मे चुभते,
में जान रहा हूँ में बूढ़ा हो गया !
मेरे रखवाले कहते- "तू गिर जा"
नहीं तो यहाँ से हटाना होगा,
तुझे काट गिरना होगा,
बनेगी नई फुलवारी, नई क्यारी,
वक्त के साथ जमीं से अलग हो जा !
काम आयेगा कुछ आग में जल,
कुछ का बना देंगे नया फर्नीचर,
ओ बूढ़े पेढ़ ! तू समझ, मान जा !
अरे अक्कल के अंधे,
और नहीं तो आंधी मे ही गिर जा,
कितने गिरते हैं हरदिन, बेहया,
कुछ तो शरम कर, और, मर जा |


:- सजन कुमार मुरारका(ए.के.भार्गव की रचना "बूढ़ा पेढ़" के अनुकरण मे )

नजरों से पिलाया गया........!!!




सूरज तो डूब गया रात के इंतजार मे और तन्हा रात आई,
दिल जले,कोफ़्त कैसा, रात बाकी, अभी तो चाँद निकला कंहा !

अभी रात बाकी,अश्रु-जल भर,पलके भीगेंगी सारी-सारी रात,
होश गंवाता नहीं, कब दस्तक दे-दें, कोन जाने दिल की फरियाद |

गम के आंसू पी-पीकर, गम ही हम से पनाह मांगें जालिम !
हमारी दास्ताँ सुन, मयखाने मे प्यालों पर प्याले भरें जाते हैं...!

अजीब हालात है, अब हम मयखाने से भी लोटा दिये जाते हैं,
इल्जाम पीनेवालों का,मेरे गम,उन्हें पुरी बोतल से नशा नहीं देता !!

क्या करें, किस डगर जायें, लेकर दिल मे बिरह की ज्वाला,
साकी रहम कर,तरस मेरी आह पर, पिला दें अंतिम हाला |

यकीनन जीने को जी लेते,महफूज अगर रहें उनके इरादे,
नफरत मे भी डर है,शिकवा करेंगे,  हम तब्बजो नहीं देते !!

जहमत ना उठाते हम पीने की, अगर वह अधरों से न पिलाते,
आँखों के जाम, नजरों से पिलाया गया,नहीं हम कंहा पीते ...?

सजन कुमार मुरारका

ह्रदय में समाई.....!!












तुमने ली जब मद-मस्त अंगढ़ाई...।

हृदय के रुधिर वेग मे फ़ैली पंचम तान
अंग -अंग मे शिहरित ओस का स्नान
पुष्प सा पुष्पित हिल्लोरित प्राण
प्रसन्नता की स्रोत बही शीतल मलय प्रमाण


तुम जब आतुरित मन से लज्जा दिखाई.........।

मेरी सोच का अबरुद्ध द्वार खोलकर
झुकी मदभरी पलकें, निहारती धीरे से छीप-छिपकर
खड़ी हो एकांत, अपने नयन-सीपी में सागर भर
लाई हो अधर प्याले में  मधु अबलम्बन लेकर


तुमने जब प्रिया मिलन की आश लगाई................।
मिलन आतुर खड़ी जैसे "नाइका" मूर्तिमान
उच्छ्वासित श्वासों में बिखरे ,उद्वेलित प्राण
शीतल मलय सम शिहरित मधुर स्पर्श सुजान
समर्पण का सन्देश प्रवाहित करता मौन आह्वान

तुम अब स्पन्दन बन, मेरे ह्रदय में समाई

सजन कुमार मुरारका

चाँद की है क्या मजाल ?......!!!




जब उनकी नज़र जो इनायत हुई हम पर,
                      सब की निगाहों मे मेरा ही वजूद छा गया...!
महफ़िल में आज सब की नजर हम पर,
                     जब से उनकी निगाहों में मेरा चहेरा आ गया,
कल तक तो इस महफ़िल का मैं कोई न था,
                   आज हर शख्स, खुद-व-खुद अपना बना गया,
जंहा कोई परिन्दे का भी नामोनिशाँ न था,
                   लाखों का हुजूम चौखट पर दस्तक बजा गया !!

सब लोग पूछते मुझसे,खुदा का है वास्ता,
            कोन सी चाल बाज़ी या साज़िश मैं रचा गया }|
अब चाँद मेरी महफ़िल मे सरगोशी करता,
                   इल्जाम है मेरे आगोश मे  चाँद आ गया |
ज़ुल्म और नफ़रत का ज़हर हर कोई फैलता,
  जलन से मुहब्बत या,सलीके का लहज़ा बदल गया !
हर ताल्लुकात मे अब सौदा नजर आता,
 कितना लाजमी है हर शख्स-ऐ-आम पास आ गया !!
जाने-जीगर प्यार का दीदार करना चाहता,
        मेरे दरवाजे पर जश्ने ईद सा माहोल्ल छा गया |

सलीक़ेमन्द लोगों का सलीक़ा समझ नहीं आता,
   बदतमीज़ी है ,आसमां के चाँद को दिलकश बताया,
"उनके " हुश्न से उस चाँद को मिलना ही गैरवाजिब था,

  मेरे " चाँद " से बाहार आसमां का खुद ही शरमा गया !

सजन कुमार मुरारका

बयां हुश्न का कर..गजल लिखते हैं....




गहरे जुल्फों में उलझ गये,माना था उन्हें सनम ;
नसीब तो देखो, सोचा था, रहेंगे इनके साये मे,

हुश्न का सहेरा समझा; बादल समझ इतराये  ;
हकीकत मे यह मेरे "जलते" दिल का धुंवा था , !

वहम था लब्बों पर फूलों सी अद्दा है, उनकी मुस्कान;
खंजर सी तेज धारवाला, है जख्म देने का औजार !

कातिलाना मुस्कान अधरों मे,हंसी,उनके चहरे पर ,
देख हाल हमारा," खुशी"छुपती नहीं,जल्लादी शान ;

नयन-कमल का भ्रम,गुंजन करता मन भवंरे सा ;
मधुपान को तरसे हम,घुमे इधर से उधर, सारे क्षण,

पंखुढ़ियों मे फँस, अदाओं से बेहाल,हो कर परेशान;
दीवाना बन,काँटों के जखम लिये, अश्क भीगे नयन;

माना उनकी हर बात अच्छी, पर हासिल हमें जख्म है ;
जिगर पे ज़ख्म,दर्द का एहसास, उनकी याद दिलाता है ;

उन्होंने दिये ज़ख्म, तभी तो बयां हुश्न का कर पाते हैं;
लिखे नहीं दो अल्फाज कभी, अब हम गजल लिख पाते हैं !!


सजन कुमार मुरारका

हैं प्यार में नाकारा......!!!



इल्जाम है हम जिन्दगी मे 
                अब किसी काम के ना रहे,;
क्या जरुरत थी "हुश्न दीदार" 

                        से हमें नाकारा बनाने की !

फुर्सत नहीं,जरुरत नहीं, न इमान भी,
                            किसी और को पाने की ;
तुम रहते हो हरवक्त साथ,

                देख लेते हैं तुम्हे अपनी परछाई मे,

हद हो गई, बहुत हुवा आशियाना, 
                             सोचा उन्हें अब भुला देंगे,
पर जब सामने से गुजर गये, 

                        सोचा  कल होगा दिन आख़री ;

शिकवा था "खुदा" की खुदाई से, 
                   दिल में तुम्हारे ख्यालात जगाने का,
वे-बजह की गफलत, खुद "खुदा"

                     को अचरज है तुम्हारी खूबसूरती से…

भेंट क्या करें तुम  को फूलों का गुलिस्ता
                                 या  खिलते गुलाब की कली
तोहींन हमारी,खुद गुलिस्ता 

                      या खुद गुलाब है जो,वही उन्हें देने की...

अकेला सा महसूस करता, तन्हाई रातों मे,
                                               याद तुम्हे कर लेता हूँ
हर लम्हा खुद-ब-खुद आबाद होता,

                             हुजूम निकलता लाखों चाँद-सितारों का

हाल परवाने सा, शंमा रोशन हुई, 
                               खींचे चले आते,पता अन्जाम मिलन का :
हम तो जीते जी मर गये, 

                         सांसे चलती आपके साहरे, हैं मजबूर-नाकारा !!

सजन कुमार मुरारका