शिल्प-
पाषाण शिला मे सजीव शिल्प अत्यन्त निराला;
अजन्ता के मूर्त-रूप मे प्रकट नारी-सौन्दर्य कला,
शिल्पी के अन्तर भाव छेनीसे निखर निखर चला,
चाहत थी या नहीं राजकीय, प्रेमातुर से रूप मिला!
नायिका की सुंदरता,रूप-अपरूप,अंग-अंग मे खिला,
कहे क्या, शब्द पाषाण, मुखरित हो गई पाषाण शिला;
जब देखता हूँ नजर भर सासें रुक सी जाती,
परी या नदी कोई जैसे चले इतराती-बलखाती;
सर से नख,यौवन भार से इठलाती-लज्जाती,
अल्लड़पन या चंचल-चित्त से लहरों सी लहराती;
यौवनमय,सुन्दर- सलोने देह की छटा बिखराती,
कामदेव की कल्पना सी नायिका, सजीव हो जाती!
शेव्त उदर-जल राशि सम, नाभी ऐसी पड़ी जैसे भँवर,
कटि-तट पर नागिन,-केश-लतायें जैसे घटा छाय अम्बर,
कचनार से अधर पर जैसे फूलों का रस गया हो ठहर,
लाली उसमे जैसे रसमय दाने फैलाए फ़ैली हो अनार ;
सीपों मे बंद मोती से नयन, काज़ल से बचे जो नज़र !
नाजुकता भरा स्पर्श,गोरी गोरी बाँहों से करे प्रेम पुकार;
दाँतों की सफेदी,धवल शेव्त रंग की दे अनुभूति !
घनकेश पिंडली छूता,नागिन कोई सा प्रतिभाति ;
उड़ते आँचल,मधु-कलश वक्ष पर,सुध खो जाती ,
पतली सी कमर लचके जैसे हवा चली बलखाती ;
पैरों के घुंघरू की पैंजनिया लय-मय धुन सूनाती !
रूप गर्विता की सुन्दरता से अप्सरा भी शरमाती |
वस्त्र जो जाय फ़िसल-फ़िसल तंग कंचुकी से,
अंग-अंग की दिखे झलक गुलाब की पंखुडियों जैसे,
नज़र मटकाए,बल खाये,जब देख इतराये पलकों से;
खिली हो कली,सुघन्ध फैलाये, पुष्प बनने की चाह्त से,
इन्द्रधनुष कोई आकर लिपट गया हो गोरी के बदन से;
नख से शिखर तक,जब अंग देखता हूँ तेरा हर नजर से !
नथुनों मे भर गहरे सासों का निशब्द तूफान;
टूट जाता है सब्र,मधु पीने मधुकर है परेशान,
कोमल कपोल,पयोधर वक्ष,कटि सुन्दर सुजान;
उद्भाषित,उन्मिलित,उन्मुक्त मिलन आह्वान!
रती-नायिका,शृंगारिका, कहाँ वस्त्र का ध्यान |
अजन्ता के मूर्त-रूप मे नारी-सौन्दर्य महान !
सजन कुमार मुरारका
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