तुम एक पत्नी हो !!?
कभी एकांत के क्षण मे,
निश्चुप, परिवेश मे,
गहराई से,शांती से,
सोचता हूँ :-
जीवन भर साथ देने;
की थी प्रतिज्ञा,
दुःख सुख साथ निभाने,
पर तुम !!
हरदम डरी सी,
शरमाई सी,
अपने आँचल में,
छिपाती सब बातें,
और अपनी गृहस्थी संभाले;
बन गई सब की दासी |
मूर्खा, सोच नहीं पायी,
परम्पराएं,, रीति,रिवाज;
इन्हें सत्य समझ !
जान ही नहीं पायी कि...
जिस बंधन में बंध कर,
जो सहती हो -
एक तरफ़ा निभाके,
अपने को सौभाग्यशाली,
समझने मे,
तुम्हारी बड़ी भुल है |
क्योंकि हर नियम,
तुम पर लागु थे,!
मैं एक पुरुष,
पुरुष-प्रधान व्यवस्था मे,
फूलों का अधिकारी!
काँटों कि चुभन से बचता,
खुश्बू से मदहोश;
शायद ही तुम्हारी पीड़ा समझता !|!
और जिस दिन ...
मैंने यह दुःख समझा,
चुभने लगे कांटे से |
लेकिन ..ऐसा कभी हो ना पाया ...
अनुभूति होने के बाद भी,
खुले मन से,
अभिव्यक्त कर पाने मे,
असमर्थ रहा |
फ़ैला था मेरा संसार दूर तक,
उस अवस्था मे,
संकोच और झूटे अभिमान से;
चुप-चाप देखता,
मन मे थे सपने अनेक,
और उन सपनों को,
कई कई प्रकार से,
कविता मे छुपाकर;
मैं कहता:-
विवेक दंशन से,
तुम्हारे सोने के बाद,
कविता का सहारे,
और मैं...सोचता हूँ !
तुमने पड़ा होगा मुझे,
मेरी कविताओं के जरिये,
अहम या पुरुष्वत-बोध मे;
अब कलेजे से,
तुम्हारी पीड़ा की गठरी लगाये ,
तुम्हारी नज़र से बचकर ,
आज उम्र के इस दौर पर !
मैं समझ पाया;
मै ने बस लेना ही जाना,
लेने में भोगा सुख,
क्योंकि तुम एक पत्नी थी !
और मैं पति |
जिसके कारण तुम सौभाग्यवती,
सीता जैसी पतिव्रता,
मर्यदा मे रहने वाली स्त्री!
और मैं पति | सिर्फ़ पति |
सजन कुमार मुरारका
कभी एकांत के क्षण मे,
निश्चुप, परिवेश मे,
गहराई से,शांती से,
सोचता हूँ :-
जीवन भर साथ देने;
की थी प्रतिज्ञा,
दुःख सुख साथ निभाने,
पर तुम !!
हरदम डरी सी,
शरमाई सी,
अपने आँचल में,
छिपाती सब बातें,
और अपनी गृहस्थी संभाले;
बन गई सब की दासी |
मूर्खा, सोच नहीं पायी,
परम्पराएं,, रीति,रिवाज;
इन्हें सत्य समझ !
जान ही नहीं पायी कि...
जिस बंधन में बंध कर,
जो सहती हो -
एक तरफ़ा निभाके,
अपने को सौभाग्यशाली,
समझने मे,
तुम्हारी बड़ी भुल है |
क्योंकि हर नियम,
तुम पर लागु थे,!
मैं एक पुरुष,
पुरुष-प्रधान व्यवस्था मे,
फूलों का अधिकारी!
काँटों कि चुभन से बचता,
खुश्बू से मदहोश;
शायद ही तुम्हारी पीड़ा समझता !|!
और जिस दिन ...
मैंने यह दुःख समझा,
चुभने लगे कांटे से |
लेकिन ..ऐसा कभी हो ना पाया ...
अनुभूति होने के बाद भी,
खुले मन से,
अभिव्यक्त कर पाने मे,
असमर्थ रहा |
फ़ैला था मेरा संसार दूर तक,
उस अवस्था मे,
संकोच और झूटे अभिमान से;
चुप-चाप देखता,
मन मे थे सपने अनेक,
और उन सपनों को,
कई कई प्रकार से,
कविता मे छुपाकर;
मैं कहता:-
विवेक दंशन से,
तुम्हारे सोने के बाद,
कविता का सहारे,
और मैं...सोचता हूँ !
तुमने पड़ा होगा मुझे,
मेरी कविताओं के जरिये,
अहम या पुरुष्वत-बोध मे;
अब कलेजे से,
तुम्हारी पीड़ा की गठरी लगाये ,
तुम्हारी नज़र से बचकर ,
आज उम्र के इस दौर पर !
मैं समझ पाया;
मै ने बस लेना ही जाना,
लेने में भोगा सुख,
क्योंकि तुम एक पत्नी थी !
और मैं पति |
जिसके कारण तुम सौभाग्यवती,
सीता जैसी पतिव्रता,
मर्यदा मे रहने वाली स्त्री!
और मैं पति | सिर्फ़ पति |
सजन कुमार मुरारका
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