Powered By Blogger

Friday, July 27, 2012

जीवनदायी



जग-मंडल में हवा बिचराती
बन के मंद, स्पर्श से सहलाती
बन के सर्द, कैसे कैसे ठिठुराती
बन के तप्त, बदन झुलसाती
बन के आंधी, विनाश कराती
कंहा कंहा से वह गुजर जाती
क्या क्या सन्देश ले आती
पहाड़ों तक से लड़ जाती
बन-बदीयों में बवंडर मचाती
नदीयों-सागर में तूफान उठाती
हिम-शीलायों से भी लिपटाती
हर मंजर को आसानी से हराती
ख़ुद की रंगत से नहीं भरमाती
बर्षा के आधार मेघ को बरसाती
खेत-खलिहान में फसल उगती
कोई दर्द हो यह नहीं घबराती
बे-रोक टोक अग्नि में समाती
छटपटा कर पिछड़ नहीं जाती
किश्तियाँ-नावों को गति दिलाती
पानी की सहायक बन बाढ़ फैलाती
बगिया में बहक सुगंध महकाती
सूरज संग मिलन, अगन लहराती
सावन में प्रवासी धार बर्षाती
गीत मेघ मल्लाहर के पहुचांति
सुख दुःख के कारन बतलाती
अंत है जीवन जब रुक जाती
गति में है जीवन अपने में दर्शाती
तभी तो यह जीबनदायी कहलाती

No comments:

Post a Comment