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Wednesday, November 14, 2012

कथा मेरे जीवन की !

 अजाचित नियति से भाग्य मे जो दुख खिला,
संचित पीड़ा का अनचाहा उपहार जब मिला;
तढ़प गया हृदय, शांत रहता कैसे अकेला ?
सोचा,जीने की उमंग,प्रेम,शांति होती क्या बला !
कैसे कह दूँ,यह भी व्यर्थ ही सा था सिलसिला ;
प्रयाप्त तृष्णा मे शुष्क कंठ से अपना लहु पीकर,
अतृप्ती की ज्वाला मे जलता रहा जीवन स्तर,
चिंतनशील भविष्यत के अंधियारे से घबड़ाकर-
अपनो से थोड़ी सी रोशनी माँगी उम्मीद कर;
मेरी रिक्त अंजली मे रख दिये ज्वलन्त अंगारे भर ।
कहा, यह परम सत्य है,तुम सक्ष्यम हो जीने मे  ,
तुममें और औरों के गुणों में भेद नहीं कोई दृष्टी से,
धरा-व्योम मे चलकर,अदृश्य लोक से मनुज आते,
अर्थ खोजने जीवन का निज भाग्य रश्मि रज्जु से,
अकेले आते,अकेले चले जाते,चिराचरित नियम मे;
अकारण रोना-धोना छोड़ो,नई कोई नहीं रीत जग की,
हर हाल से ,जीवन चल जाता,जैसे तैसे योंही-कंही ।
यातनाओं को सहने की आद्त सीखो ,जीते हैं वही,
जीना है तो सहिष्णुता और धर्य से बात बनेगी  सही;
तभी,सहकर भी जी रहे,छूटे न जीने का लय, कभी,
मृत कोशिकायों मे अनुताप लिये,कथा मेरे जीवन की !
जब भी मन अशांत हुआ,बिछाता सेज कांटों की,
मगर आज मरी हुई  लालसा क्यों  प्रखर हो उठी !
क्यों कह रही,रह-रहकर, दबी-दबी,लुकी–लुकी सी ,
डूबते-जीवन की करुण कहानी,सुनने क्यों आयेगा कोई ?

:-सजन कुमार मुरारका

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