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Sunday, February 17, 2013

मन की भूख !

मन की भूख  !

कवि,तुम जो लिखते हो ,
सोच के सागर मे;
कई कई बार,
पहले डुबकी लगाकर!
भावनाओं के मोती,
या गहराई से,
जलज़-सिक्त;
धुली हुई मिट्टी,
उठाकर या बटोरकर;
रूप देते !
मासूम चुलबुला शैशव;
पल्लवित किशोर अवस्था,
उतेज़ित यौवन ,
झुरियों भरी अधेड़ उम्र,
और थका-हारा वार्धक्य;
हर तरह का वर्णन!

प्रेम-वियोग,सुख-दु:ख,
बन्ध आँखों से,
उखड्ती साँस,असहाय दर्द;
लहु को करे सर्द या ज़ोशीला;
दिल दहलानेवाली बात;
लिखते तुम,लिख सकते !
परन्तु! लिखते ही क्यों ?
मैं सोचता-"भूख"के कारण"!
रोटी,कपड़ा,मकान,
यश,प्रतिष्ठा,मान-सन्मान,
व्यवस्था,अव्यवस्था के दंशन;
नीति-अनीति के कथन,
कहे-अनकहे वचन,
जो शब्द नहीं:-
सिर्फ़"भूख"के प्रतिफलन |
हम सब भूखें,भूख मिटाने,
कविता लिखते हैं,
पर यह पेट नहीं भरता !
सिर्फ भरे दिमाग और मन |

सजन कुमार मुरारका 

 

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