क्यूँ हुई वह परायी'
शहनाई की धुन पर...
बचपन के आँगन को छोड़
दर्द सहती आई हैं बेटियां...
अपने अंश को विदा करते मात-पिता
अकथ पीड़ा महसूस करते आये सदा
और विदा करा कर ले जाने वाले
आँखें नम होती हैं.उनकी भी बिन बोले
विदाई की घड़ी होती ही है ऐसी,
गंभीरता की प्रतिमूर्ति बने भाई ऐसे
सुबकने लगते छोटे बच्चों जैसे
यह दृश्य इतना हृदयविदारक होता
कल्पना मात्र से मन विचलित लगता
कितना अजीब है अलग हो जाना
पौधे भी ज़मीन से जब जुदा होते
नये वातावरण में मर जाते
गमले में खिलने वाला पौधा,
वन में नहीं पनपता
वनफूल गमलों में नहीं खिलते
पर बेटिया बाबुलका आँगन जैसे छोड़ती
दूसरे आँगन में कदम रखते
अपने आप वहीँ की हो जाती,
सामर्थ्य केवल उन्हें दिया प्रभु ने,
ऐसी कठोर रीत रिवाज़ जो निबाहने
सारा धैर्य और अकूत सहनशक्ति
और ऐसे में नम आँखों से स्मृति
इन बातों को लेकर खूब उलझता मन.
सारे नियम भी खूब समझता है मन
यादों का धागा पकड़, छूट गए घर
आँगन में गूंज रहे बचपन के कितने स्वर
लम्हे जी आते,.फिर नए वातावरण
स्थापित क्रम,चलता रहता है आजीवन...
ऐसे में अगर 'अब के बरस भेजो भैया को.....
शब्दों को सहेजते हुए उदास मन को
गीत कहीं बज रहा तो कान ही नहीं
रोम रोम सुनता है गीत यही
और रुंधे हुए गले से स्वर नहीं
निकलते आंसू,शब्द भी खो जाते कंही
शब्दों को सहेजते हुए उदास मन को
नयनों की नमी महसूस कर रहे जो
इस दर्द से अनजान नहीं हैं. वो
पीछे छूट गए बचपन को
याद करते हुए अपने आँगन को
ललकती... अपने नैहर से सन्देश को
तकती, पथरायी आँखे
बेध डालता यह गीत आत्मा को
कैसे न भीगेगी आँखें! '
क्यूँ हुई वह परायी' का सवाल
हर किसी के मन में मचाये बवाल
जब स्वर मिलते इस भाव में
बिखरी हुई उदासी है कुछ इस हाल में
भावुक हृदय अगर इस पर कुछ लिखता
तो वह निश्चित ही अनुपम होता...
ऐसे में तो बस लेखनी हो गई स्तब्द
पीढ़ा के साथ मेरे बिखरे से शब्द.
सजन कुमार मुरारका
शहनाई की धुन पर...
बचपन के आँगन को छोड़
दर्द सहती आई हैं बेटियां...
अपने अंश को विदा करते मात-पिता
अकथ पीड़ा महसूस करते आये सदा
और विदा करा कर ले जाने वाले
आँखें नम होती हैं.उनकी भी बिन बोले
विदाई की घड़ी होती ही है ऐसी,
गंभीरता की प्रतिमूर्ति बने भाई ऐसे
सुबकने लगते छोटे बच्चों जैसे
यह दृश्य इतना हृदयविदारक होता
कल्पना मात्र से मन विचलित लगता
कितना अजीब है अलग हो जाना
पौधे भी ज़मीन से जब जुदा होते
नये वातावरण में मर जाते
गमले में खिलने वाला पौधा,
वन में नहीं पनपता
वनफूल गमलों में नहीं खिलते
पर बेटिया बाबुलका आँगन जैसे छोड़ती
दूसरे आँगन में कदम रखते
अपने आप वहीँ की हो जाती,
सामर्थ्य केवल उन्हें दिया प्रभु ने,
ऐसी कठोर रीत रिवाज़ जो निबाहने
सारा धैर्य और अकूत सहनशक्ति
और ऐसे में नम आँखों से स्मृति
इन बातों को लेकर खूब उलझता मन.
सारे नियम भी खूब समझता है मन
यादों का धागा पकड़, छूट गए घर
आँगन में गूंज रहे बचपन के कितने स्वर
लम्हे जी आते,.फिर नए वातावरण
स्थापित क्रम,चलता रहता है आजीवन...
ऐसे में अगर 'अब के बरस भेजो भैया को.....
शब्दों को सहेजते हुए उदास मन को
गीत कहीं बज रहा तो कान ही नहीं
रोम रोम सुनता है गीत यही
और रुंधे हुए गले से स्वर नहीं
निकलते आंसू,शब्द भी खो जाते कंही
शब्दों को सहेजते हुए उदास मन को
नयनों की नमी महसूस कर रहे जो
इस दर्द से अनजान नहीं हैं. वो
पीछे छूट गए बचपन को
याद करते हुए अपने आँगन को
ललकती... अपने नैहर से सन्देश को
तकती, पथरायी आँखे
बेध डालता यह गीत आत्मा को
कैसे न भीगेगी आँखें! '
क्यूँ हुई वह परायी' का सवाल
हर किसी के मन में मचाये बवाल
जब स्वर मिलते इस भाव में
बिखरी हुई उदासी है कुछ इस हाल में
भावुक हृदय अगर इस पर कुछ लिखता
तो वह निश्चित ही अनुपम होता...
ऐसे में तो बस लेखनी हो गई स्तब्द
पीढ़ा के साथ मेरे बिखरे से शब्द.
सजन कुमार मुरारका
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