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Saturday, September 8, 2012

ये जीना कैसा जीना ?

ये जीना कैसा जीना भला
क्या चाहा था क्या मिला
जो मिला उसे चाहत से तोलते
और सुख दुःख की कविता बुनते
जीवन सपनों में बिता रहे …..
सपने तो मेरे सपने ही रहे,
दिन आए और दिन बीत गए.…
जीवन के दिन यों ही बीत गए ….!
 सपने में जीने का मजा, दर्द या मन की अनजानी तडपन
 उलझ गये "कविवर", न सुलझी, बढ़ गई मन की उलझन
 यह न सुलझनेवालि "उलझन" मन में जगाये मंथन

सजन कुमार मुरारका

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